ये दिन ढलता क्यों नही, धूप जाती क्यों नही
हरे भरे रास्ते अब बूढ़े हो चले हैं, रात में जलने वाले बल्ब अब बुझते क्यों नही
बातें हुईं इतनी की सच मैं भूलने लगा
कोई क्या करेगा प्रेम जब खुद के लिए इतनी नफरत दबाये हैं
चांद अब दिखता क्यों नही है ,आसमान अब रिस्ता क्यों नही है
आंखों की तिजोरियों में कई सपनें संजोये हैं
दूर गांव मैंने भी फूलों के तकिये बिछाये हैं
तो क्या हुआ अब जो सांस थमने लगी, चंचल आंखे अब कही जमने लगी
सवाल इतने कम क्यों होने लगे हैं
सफर अब घटने क्यों लगा है
हम कितने बेदाग थे जो ये दाग लगने लगा
हम कितने बेआवाज थे जो ये आवाज़ अब दबने लगा
माघ की सर्दी अब भादो में क्यों लगती है
रिश्ते कई अब क्यों इतने ठंडे हो चले है
ये दिन ढलता क्यों नही ,धूप जाती क्यों नही
ताकि रात आ सके और कोई उस अंधरे में सो सके इन सब उलझनों दे दूर






